मुझे मुशायरे attend करने का ज़रुरत से ज़्यादा शौक नहीं। ख़ास तौर पर जनवरी के महीने में बहुत मेहनत मशक़्क़त से गर्म किए हुए कमरे में गर्मागर्म चाय की प्याली को छोड़ कर दिल्ली जा कर। लेकिन ज़रुरत तो अब आन ही पड़ी है – शायरा जो हो गई। और कुछ भी कहो, एक बार किसी तरह रज़ाई से निकल कर महफ़िल में पहुँच जाओ तो जो सुनने का मज़ा है, वो YouTube में नहीं। एक जो माहौल बनता है वहाँ, एक कैफ़ियत बनती है, उस की बात ही कुछ और है। कैफ़ियत से याद आया कि जश्न-ए-कैफ़ी का बहुत ज़िक्र चल रहा था social media पर। जगह जगह poster भी लगे देखे। दिल्ली सरकार ने मुमताज़ शायर कैफ़ी आज़मी की centenary birth anniversary मनाने का ऐलान किया था। तरह तरह के VIP लोगों को दावत दी गई थी शिरकत करने, दिया जलाने और बाक़ी अहम काम करने के लिए। साथ ही बहुत ही खुले दिल से दावत खुले आसमान में भी फेंक दी गई थी। Event का नाम ही था – “Jashn-e-Kaifi | Entry Free”. उस पर जावेद साहब और शबाना जी की चमचमाती तस्वीर इशारे कर के बुला रही थी।
मेरी एक ख़ास दोस्त हैं जो शायरी में बहुत दिलचस्पी रखती हैं, उन की सोहबत के लालच ने काम और आसान कर दिया। कैफ़ी साहब (मेरी दोस्त बहुत particular हैं कि कैफ़ी आज़मी नहीं, कैफ़ी साहब ही बोला जाए) की उम्दा शायरी सुनने के लिए मैंने आख़िरकार रज़ाई उतार फेंकी और metro पकड़ कर हम गुडगाँव से कमानी auditorium जा पहुँचे। अब वहाँ जा कर क्या हुआ, ये सुनने के लिए सुनिए कि कल क्या हुआ था। मैंने एक नज़्म लिखी थी कल। बहुत रवानी से झरझराती हुई दिल से निकली थी सो facebook पर डाल दी। बहुत लोगों ने दाद दी। फिर जब मम्मी से बात हुई रात को, तो उन्होंने कहा कि लिखा तो तुम ने बढ़िया है और मैं कुछ emotional सा लिखना भी चाहती थी response में, पर मुझे ये बताओ कि क्या तुम्हें पैसे मिलते हैं लिखने के? ज़ोर ज़ोर से हँसने को जी चाहा पर हँसी नहीं, सिर्फ़ इतना ही कहा कि अभी तो मेरे ख़ुद के पैसे लगते ही जा रहे हैं, आने जाने में, मिलने मिलाने में, पढ़ने पढ़ाने में, वग़ैरह वग़ैरह। “तो फिर क्यों लिखती हो तुम?” एक मासूम सा सवाल आया। अब मेरे माँ बाप उस generation और तबक़े से हैं जिन्होंने ज़िंदगी भर मेहनत की है, कोई भी चीज़ उन्हें बिला-वज्ह हासिल नहीं हुई। ज़ाहिर है कि ख़ून पसीना एक कर के जिस बेटी को software programmer बनाया, वो पैसे जेब से ख़र्च कर के शायरी क्यों कर रही है, ये बहुत ही वाजिब सवाल है उन के लिए। जवाब तो मेरे पास भी कोई ख़ास नहीं था सिवाए इस के कि अच्छा लगता है। हमारे वालदैन के पास passion और calling जैसी luxury नहीं थी जो थोड़ी बहुत हमारे पास है।
ख़ैर, ये सब छोड़िये, तो हम जा पहुँचे कमानी auditorium. हमें बहुत ही समझदारी का idea आया था कि programme शुरू होने के आधे घंटे पहले, यानि 6 बजे, ही वहाँ पहुँच जाएँ ताकि अच्छी सी सीटें पकड़ लें। पर वो समझदारी का idea उस बंदा-परवर ने और हज़ार लोगों को भी बख़्श दिया था। एक तो हिन्दुस्तान की आबादी है ही माशा-अल्लाह, छोटी मोटी मिक़दार में तो हम कोई काम करते ही नहीं। सो बहुत से जोशीले लोग वहाँ पर 5 बजे से ही खड़े थे। चारों तरफ़ से हम इनसानी सैलाब में घिरे खड़े थे पर ख़ुश थे कि अभी सब्र का मीठा फल मिलेगा और हमें इज़्ज़त-ओ-एहतराम से अंदर बिठाया जायेगा। भला हम से बढ़ कर सुख़न की क़द्र करने वाला कौन होगा? लेकिन gate था कि कोई रूठा हुआ महबूब, खुलने का नाम ही नहीं ले। साढ़े 6 भी बजे, 7 भी, और साढ़े 7 भी, लोग बढ़ते गए पर gate का दिल न पसीजा।
एक पुलिस वाला चिल्लाता जा रहा था – house full है, house full है, जाओ, जाओ। मज़े की बात ये कि कोई टस से मस होने को तैयार नहीं। “अरे भाई, house full कैसे हो सकता है? Gate तो खुला ही नहीं! Public event है, public बाहर खड़ी है, house full किस ने किया, जिन्न भूतों ने आ कर?” सवाल-ओ-जवाब होने लगे। थोड़ी ही देर में तक़रार भी। बच्चे, बूढ़े, जवान और हम जैसे दरमियान के, यानि हर एक क़िस्म का sample था वहाँ पर। मंगलवार की शाम, बहुत से लोग office और काम धंधा निपटा कर भी पहुँचे थे। मगर साहब, शायरी सुननी है तो शायरी सुननी है। पुलिस वाले भाई साहब की शक़्ल पर साफ़ ज़ाहिर था कि हमारी बेवक़ूफ़ी का level उस की समझ से परे है। “ठीक ठाक घरों के लगते हैं, जब भगाया जा रहा है, तो समझते क्यों नहीं? घर जा कर TV क्यों नहीं देख लेते?” कुछ ऐसा।
जैसे जैसे तक़रार का जोश बढ़ता गया, लोगों का इरादा और पुख़्ता होता गया। बात शायरी की मुहब्बत की आज़माइश पर जा पहुँची थी। पुलिस जी के चेहरे के हाव भाव ग़ुस्से और इल्तिजा के बीच हिंडोले खा रहे थे। गुस्सा कि, “ऐसा कौन सा सुर्ख़ाब का पर पड़ा है अंदर?” इल्तिजा कि, “तुम भी जाओ तो मैं भी जाऊँ, सुबह का थका हारा हूँ, रहम करो।” जनता का फ़ैसला था कि वो यूँ ही बाहर खड़े रहेंगे जब तक programme अंदर चलता रहेगा। कैफ़ी साहब आवाम के शायर थे, उन्हें आप elites के शायर क्यों बना रहे हो? अगर event इतनी private ही थी, तो public public कह कर इतना इश्तिहार क्यों दिया? अब या तो management आ कर जवाब दे या वो हमारे लिए screen का इंतिज़ाम करें, हम सड़क पर खड़े खड़े ही देख लेंगे। पर ये तय है कि हम यहाँ से जाने वाले नहीं।
जब जनता की रग़ों में इतना जूनून दौड़ रहा था, मैं मंद मंद मुस्कुरा रही थी। मैंने बहुत मुशायरे देखे हैं, कुछ-एक में पढ़ने की ख़ुशनसीबी भी हासिल हुई है, पर यक़ीन कीजिए, ये non-मुशायरा मेरी ज़िंदग़ी का सब से ख़ुशनुमा नज़ारा था। ये था मेरी मम्मी के सवाल का बेहतरीन जवाब! देखिए, कैफ़ी साहब को अल्लाह मियाँ के पास गए कुछ 16-17 बरस हो गए, और आज भी ये आलम है! दिल को जो चीज़ छू जाती है, बस छू जाती है। IT में खटखटा के मैं कौन सा ऐसा software बना लेती कि लोग मुझे देखने सुनने के लिए इतने बेक़रार हो जाते? (Disclaimer: जो लोग IT में अपना और मुल्क का नाम रौशन कर रहे हैं, उनके लिए बहुत इज़्ज़त है दिल में और दूसरा, कैफ़ी साहब के मुक़ाबले में बहुत ही अदना हूँ पर उस राह पर चलूँ तो सही जिस की मंज़िल पर रश्क़ हो।)
अब ये तो बहुत ही अच्छा हुआ कि घर से चलते चलते मैंने heels उतार कर flats पहनने का बहुत ही मुनासिब फ़ैसला ले लिया था। होता क्या है कि जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, बहुत दफ़ा style सहूलत से हार जाता है। सोचा जावेद साहब और शबाना जी तो मेरे ballroom shoes देखने से रहे। अच्छा ही सोचा वर्ना मेरे पैर सारी रात चीख चीख कर मुझे बद-दुआएँ देते।
बात बढ़ते बढ़ते इस क़दर बढ़ी कि कुछ जोशीले नौजवान हवालात जाने को भी राज़ी हो गए। एक मर्तबा तो यूँ भी लगा कि कहीं दंगे न हो जाएँ। दंगे न सही पर कुछ कुछ stampede की first stage जैसे आसार तो बन ही रहे थे। ख़ास कर जब भी किसी VIP type इनसान को हमारे बीच से चीर कर gate तक ले जाया जाता था। शक़्ल और बालों से वो अज़ीम शायर ही मालूम पड़ते थे। हमारे ऊपर से तैर कर बहुत से bouquets भी अंदर बैठे साहिबान तक पहुँचे। पर जनता का फ़ैसला ये भी था कि अगर gate खुला, VIPs के लिए या bouquets के लिए, हम भी साथ ही जाएँगे। सो बहरहाल, gate नहीं खुला, उन VIPs को किसी तरह सुरंगों के रास्ते अंदर पहुँचाया गया होगा।
ख़ैर, पुलिस वाले भाई साहब ने आँखें भी दिखाईं और हाथ भी जोड़े। पर सब तो जैसे सरफ़रोशी की तमन्ना दिल में ले कर ही आए हुए थे। जनता जनार्दन के आगे उनके तेवर भी ढीले हो गए, फिर वो जैसे हमीं में से एक हो कर बातचीत करने लगे कि आख़िर मर्ज़ क्या है, क्यों ठिठुरती सर्दी में सड़क पर इस संगदिल gate से चिपके खड़े हो? उन को भी हम ने अपनी शरण में ले लिया। और मेरा ख़्याल है कि वो रास्ते से शायरी की एक दो किताबें ख़रीद कर ही घर पहुँचे होंगे। देखिए, इस तरह के फ़ितूर को पालने वाले कोई आम इनसान तो होने नहीं थे, सभी शायर या closeted शायर थे वहाँ। फिर क्या था, वहीं शुरू हो गए। कैफ़ी साहब से बिस्मिल्लाह कर के सब अपनी अपनी सुनाने लगे। मैंने भी दाग़ साहब का दाग दिया कि भई जहाँ बैठ गए, बैठ गए। हालाँकि बैठना तो दूर, बस मुश्किल से दो पैर रखने भर की ज़मीन मयस्सर थी। और नज़दीकियाँ ऐसी कि साँसे ख़ुद की हैं या पड़ोसियों की, कुछ पता नहीं चलता था। तो purse और mobile को कस के जकड़े हुए इस intimate से माहौल में ख़ूब वाह वाह भी हुई और दोस्तियाँ भी। मेरी एक नई बनी दोस्त का छोटा सा बेटा बड़ा परेशान मालूम पड़ता था। पूछा तो पता चला कि वो वापिस घर नहीं जाना चाहता, ये भीड़ बहुत मज़ेदार है। होनहार बिरवान के होत चीकने पात।
मैं ठहरी एक रंगरूट शायरा, जूतियाँ चटखाती वहाँ जा पहुँची, अना का ऐसा कोई ख़ास मसला नहीं था। पर जले पर नमक ये कि कोई साहब, जो हमारे दूर दराज के facebook friend लगते हैं, पूरी event live करने पर तुले हुए थे। ठीक है भाई, समझ गए, आप पहुँचे हुए हैं बहुत, जो पहुँच गए अंदर, अब नमकदानी को ज़रा side में रख दीजिए।
फिर जैसे तैसे हम ने अपने टूटे हुए और बहुत ख़ुश दिल को सहलाया और CP में बैठ कर ग़म ग़लत किया।
थी तो मजलिस चाहे कैफ़ी साहब की ही, पर ग़ालिब तो मौके बेमौके याद आ ही जाते हैं – तो बहुत बे–आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले, ज़रूर, पर बहुत ही ख़ुश निकले!!
Dinakshi
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आप बहुत उम्दा लिखती हैं। आपकी बाकी रचनाओं की तरह ये अनुभव लिखने का अंदाज़ भी बहुत रोचक था। कमाल की कलम है आपकी। बहुत शुभकामनाएं?
बहुत बहुत शुक्रिया 🙂